रविवार, 30 अगस्त 2015

पुनर्विचार की कोई वजह नहीं ; हड़ताल होगी: श्रम संघों ने दोहराया संकल्प

पुनर्विचार की कोई वजह नहीं ; हड़ताल होगी: श्रम संघों ने दोहराया संकल्प
केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने संयुक्त कार्रवाई के लिए आह्वान को दोहराया।
2 सितंबर को देशव्यापी आम हड़ताल भारी सफल बनाने एकजुट होकर आगे बढो।
ट्रेड यूनियनों की मांगों के 12 सूत्री चार्टर पर 26 और 27 अगस्त 2015 को मंत्रियों के समूह और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के बीच आयोजित दो दौरो के चर्चा के बाद वित्त मंत्री श्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में गठित मंत्रियों के समूह ने 27-08-2015 को रात 10 बजे प्रेस सूचना ब्यूरो के जरिये प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से एक अपील भेज ट्रेड यूनियनों से 2 सितंबर, 2015 के देशव्यापी आम हड़ताल के आह्वान पर पुनर्विचार करने के लिए आग्रह किया। सरकार का दावा है कि उसने ट्रेड यूनियनों की अधिकांश मांगो पर विचार करने के लिए ठोस आश्वासन दिया है जिसके बाद ट्रेड यूनियनों ने सरकार के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए सहमति जताई है। ऐसी ही अपील 27 अगस्त की बैठक में भी की गयी थी। सरकार के दोनों दावे पूरी तरह से गलत हैं।
सीधे तथ्यों पर बात कहें तो, केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच ने अपने बुनियादी मांगो को लेकर 2009 के बाद से ही केंद्र में एक के बाद दूसरी सरकार से पहल की है। 2010 के बाद से देशव्यापी आम हड़ताल के तीन दौर हुए हैं जिसमे अंततम फरवरी 2013 में दो दिनों की हड़ताल थी। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और मंत्री समूह के बीच बैठक के दो दौर मे, मुद्दों में से कुछेक पर उठाए जा रहे या उठाए जाने वाले कदमों, वह भी सही दिशा में नही, पर मंत्रियों द्वारा अस्पष्ट बयानो को छोड़कर, ठोस रूप मे कुछ भी नहीं हुआ।
सरकार की प्रेस विज्ञप्ति मे उनके निराधार दावो के समर्थन में अन्य बातों के साथ कुछ मुद्दों का उल्लेख किया गया।
1. सरकार ने सभी के लिए "फार्मूला आधारित न्यूनतम मजदूरी अनिवार्य करने और लागू करने के लिए उचित कानून" के बारे में कहा है। लेकिन ट्रेड यूनियनों द्वारा प्रस्तुत ठोस संकेत के बावजूद, कि यह फार्मूला 2012 में 44 वें भारतीय श्रम सम्मेलन(आईएलसी) द्वारा पहले से ही की गयी सर्वसम्मत सिफारिश, जिसे जुलाई 2015 में 46 वें भारतीय श्रम सम्मेलन की और फिर से दोहराया गया है तथा जिसमे भारत सरकार भी एक पक्षकार है, के अनुसार ही होना चाहिए, मंत्रियों ने उस पर कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया। वास्तव में 2012 में 44 वें आईएलसी द्वारा किये गये और जुलाई 2015 में 46 वें आईएलसी द्वारा दोहराए गए सिफारिश वाले फार्मूला के तहत न्यूनतम मजदूरी 2014 के मूल्य स्तर पर रुपये 20,000 के आसपास बनती है। ट्रेड यूनियनों केवल 15,000 रुपये मांग रही है। मंत्रियों का अस्पष्ट सूत्रीकरण इसका आधा भी सुनिश्चित नहीं करता है। क्या इस तरह की स्थिति विचार के लायक है?
2. ठेका श्रमिकों पर, सरकार ने उन्हें न्यूनतम मजदूरी की गारंटी का आश्वासन दिया। इसमे आश्वस्त करने के लिए क्या है सिवाय जानबूझकर भ्रम फैलाने के? देश का मौजूदा कानून विधिवत ठेका श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करता है। "ठेका श्रमिकों के लिए क्षेत्र विशेष न्यूनतम मजदूरी" के बारे में सरकार के बयान का भी कोई मतलब नहीं है। ट्रेड यूनियनों की तो मांग है कि ठेका मजदूरों को संबंधित उद्योग में कार्यरत नियमित श्रमिकों के अनुरूप एक समान मजदूरी व अन्य लाभ दिया जाए। 2011 में आयोजित 43 वें भारतीय श्रम सम्मेलन(आईएलसी) ने भी सर्वसम्मति से इसी बात की सिफारिश की है व 2015 में 46 वें आईएलसी ने इसे दोहराया है जिनमें वर्तमान सरकार भी एक पार्टी है। फिर कैसे वह भारतीय श्रम सम्मेलन जैसे देश में सबसे ऊंचे त्रिपक्षीय मंच की सर्वसम्मत सिफारिश को इनकार कर सकते है?
3. श्रम कानून में संशोधन पर सरकार द्वारा सतर्कतापूर्वक तैयार किये गये कदम उद्योगों और अन्य प्रतिष्ठानों मे कार्यरत श्रमिकों के 70% से अधिक को लगभग सभी बुनियादी श्रम कानूनों के दायरे और कवरेज से बाहर फेंकने के लिए और कामगारों की सुरक्षा / अधिकार के लगभग सभी घटकों व प्रावधानों को खत्म करने के लिए तैयार किये गये हैं। इस कदम के पूरक के रूप एक अच्छी संख्या मे राज्य सरकारों के द्वारा इसी दिशा में श्रम कानूनों में संशोधन करने के लिए अधिक आक्रामक कदम उठाए जा रहे है। इस मुद्दे पर सरकार ने केवल यह भर कहा है कि वे इस तरह के कदम उठाने से पहले त्रिपक्षीय परामर्श आयोजित करेगी। ट्रेड यूनियनों ने केन्द्र सरकार के इस तरह के प्रस्तावों को खत्म करने और राज्य सरकारों द्वारा किए गए एकतरफा संशोधनो पर (राष्ट्रपति के माध्यम से) अनुमति नहीं देने की मांग की है। यहां तक कि सरकार के कुछ प्रस्तावों पर आयोजित त्रिपक्षीय विचार-विमर्श में, ट्रेड यूनियनों के एकमत सुझावो को सरकार द्वारा नियोक्ताओं के जोरदार तालियों के पक्ष में नजरअंदाज कर दिया गया। एक बार अगर श्रमिकों के अधिकारों और सुरक्षा उपायों को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने और 70% से अधिक श्रमिको को श्रम कानूनों के दायरे से पूरी तरह बाहर करने वाले श्रम कानूनों के इन प्रतिगामी परिवर्तनो को अधिनियमित कर दिया गया, जिससे लगभग सम्पूर्ण कामकाजी जनता अपने कार्यस्थल में अधिकार विहीन हो जायेगी, तो क्या न्यूनतम मजदूरी और उनके लिए अन्य सामाजिक सुरक्षा लाभ के भुगतान भी सुनिश्चित हो सकेगा, भले ही उन प्रावधानों में सुधार भी हो? क्या खुद को ट्रेड यूनियन कहने वाला कोई भी संगठन, कामकाजी जनता पर वास्तविक गुलामी की शर्तों को लागू करने के लिए बनाये गये इस तरह के एक कुचक्र को स्वीकार कर सकती हैं? 
4. ट्रेड यूनियनों द्वारा बार-बार आग्रह के बावजूद सरकार ने योजना कर्मियो अर्थात आंगनवाड़ी, मिड-डे मील, आशा, पैरा शिक्षकों और दूसरों को सांविधिक न्यूनतम मजदूरी व अन्य अधिकारो के साथ “श्रमिक” के तौर पर माने जाने के मांग को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यह इस विषय मे 2013 के 45 वें भारतीय श्रम सम्मेलन(आईएलसी) के सर्वसम्मत सिफारिश जिसे 2015 में 46 वें आईएलसी द्वारा फिर से दोहराया गया, का घोर उल्लंघन है। इन सभी योजनाओं के लिए बजटीय आवंटन में भारी कटौती के कारण इन कर्मियो व योजनाओं के समक्ष इनके अपने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। क्या ऐसी स्थिति में सरकार के "सामाजिक सुरक्षा उपायों का विस्तार" और "इसके लिये उपाय निकालने" के आश्वासनो का कोई भी अर्थ निकलता है?
5. बोनस के मुद्दे पर सरकार ने पात्रता और गणना सीलिंग को मौजूदा रुपये 10000 और रुपये 3500 से क्रमश: रुपये 21000 और रुपये 7000 करने का आश्वासन दिया गया है। ट्रेड यूनियनों की मांग है कि चूंकि लाभ पर कोई सीमा नहीं है, बोनस भुगतान अधिनियम में सभी सीलिंग को पूरी तरह से हटा दिया जाना चाहिए। ट्रेड यूनियनों ने ग्रेच्युटी गणना के लिए फार्मूला के ऊपर की ओर पुनरीक्षण और ग्रेच्युटी भुगतान पर सीलिंग हटाने की भी मांग की है। सरकार ने मांग को नकार दिया है।
6. कीमतों में बढ़ोतरी पर सरकार का दावा कि कीमते नीचे चली गयी है, आम लोगों के दैनिक आवश्यकताओं के लिए वस्तुओं के संबंध में जमीनी हकीकत के साथ मेल नहीं खाता है। देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सार्वभौमीकरण के साथ-साथ आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं में सट्टेबाजी / वायदा कारोबार पर प्रतिबंध लगाने की ट्रेड यूनियनों की मांगों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।
7. ट्रेड यूनियनो ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण सहयोगी की भूमिका निभा रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश रोकने की मांग की। सरकार ने न केवल इसे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया बल्कि वह आक्रामक तरीके से सभी प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश के मार्ग पर चल रही है जो देश की अर्थव्यवस्था के लिये नुकसान का सबब है। रक्षा, रेलवे और वित्तीय क्षेत्र में एफडीआई के रोकने के लिए मांगों पर सरकार का पूरी तरह इंकार का रुख जारी है। इसपर, सरकार तो अब वृहद रूप से बिजली, बंदरगाह और गोदी, हवाई अड्डों आदि जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में आक्रामक तरीके से निजीकरण के मार्ग पर चल रही है।
अन्य मुद्दों पर भी सरकार के बयान पूरी तरह से अस्पष्ट है, उनके दावे निराधार है। कैसे कोई भी, खुद को ट्रेड यूनियन कहने वाला कोई भी संगठन, श्रमिको की इन महत्वपूर्ण मांगों पर सरकार के इस रूख को एक सकारात्मक विकास मान सकती हैं और संयुक्त हड़ताल कार्रवाई के कार्यक्रम से खुद को बाहर कर सकती हैं?
इसलिए, 2 सितंबर 2015 के देशव्यापी आम हड़ताल के लिए केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए बिल्कुल कोई कारण नहीं है। बल्कि, इस स्थिति में तो 2 सितम्बर 2015 की आम हड़ताल के लिए पूरे देश के अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढने में कोई भी हिचकिचाहट नही होनी चाहिए।
केन्द्रीय ट्रेड यूनियनो की सभी कामकाजी जनता, चाहे वे किसी भी जुड़ाव के हो, को अपील है कि वे सरकार की मजदूर विरोधी - जन विरोधी नीतियों के खिलाफ देशव्यापी आम हड़ताल को भारी रूप से सफल करें।